जितनी भी आध्यात्मिकता "बोलने", "सुनने" और "पढ़ने" वाली है वो बस भाषा है.

Date: 2024-02-21
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 वो चाहे कथाएं हों, कहानियां हों या आध्यात्मिकता के प्रयोग हों.. ये सब कुछ पढ़ने, सुनने और भूल जाने के लिए होते हैं.. आप कितना भी कह लें कि इस से आपको बड़ा फायदा हुआ, आपने बड़ी ऊंचाइयां छू लीं, वो सब आपका भ्रम होता है..

 कितना भी आप पैसा देकर सदगुरु के पास जा कर प्रथम पंक्ति में बैठकर उन्हें सुन लें, आपके भीतर कुछ नहीं बदलेगा.. हां आपके जीवन जीने में, कर्मकांड में, थोड़ा बहुत सोचने के तरीके में बदलाव हो सकता है, मगर भीतर कुछ नहीं बदलेगा आपके.. आप भीतर से वैसे ही रहेंगे जो आप सदगुरु के पास बैठने से पहले थे

ये वैसे ही है जैसे रामदेव और शिल्पा शेट्टी का योग.. जो करता है उसे कुछ देर के लिए लगता है कि वो आध्यात्मिक, शांत चित्त और कूल हो गया है.. मगर जैसे ही उस व्यक्ति के ऊपर किसी भी तरह का जीवन का दबाव, परेशानी और मुसीबत पड़ती है, उसका असल रूप निकल कर बाहर आता है..

 रामदेव के योग से आपका पेट सही हो सकता है, बीमारी कम हो सकती है मगर आप "आध्यात्मिक" नहीं होते हैं.. लोग कान में म्यूज़िक लगा कर ध्यान करते हैं तो उन्हें कुछ देर के लिए लगने लगता है कि जैसा उन्हें महसूस हो रहा है ऐसा ही कुछ शायद बुद्ध को हुआ होगा

बुद्ध भी तमाम गुरुओं के पास रहे.. महात्माओं के आश्रम में रहे और अंत में कुछ भी काम नहीं आया.. भीतर से स्वयं जब कुछ कौंधा तब उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ.. मगर फिर बुद्ध के मानने वाले  उन्हीं की तरह नकल करके बैठने लगे.. तरह तरह के तरीके से पलथी मार कर बैठने से उन्हें लगने लगा कि ज्ञान प्राप्त हो जाएगा.. मगर कुछ न हुआ.. अभी भी जिस भी लामा या भंते को ज्ञान मिलता है वो उसके अपने भीतर के किसी एक ख़ास "केंद्र" के कौंधने से प्राप्त होता है.. 

कितना भी बुद्ध जैसी पलथी मार के बैठ लो उस से कुछ नहीं होगा.. कितना भी बुद्ध की किताब पढ़ लो कुछ नहीं होगा.. भीतर से आप वही रहेंगे जो हैं.. थोड़े समय के लिए आपका मस्तिष्क आपको बेवकूफ बना देता है और आप सोचने लगते हैं कि अब आप पूरी तरह बदल गए हैं, कूल हो गए हैं, अब आपको दुनिया से कोई मतलब नहीं है.. मगर ऐसा कुछ नहीं होता है

बोलने, सुनने और पढ़ने वाला आध्यात्म एक "नशा" है.. थोड़े समय के लिए जैसा आपको "माल" फूंक कर महसूस होता है वैसे ही सदगुरु के सामने बैठकर उनको सुनने में महसूस होता है.. तार्किक बातों से आप आध्यात्मिक नहीं बनते हैं.. आपके भीतर जिस दिन स्वयं से वो "केंद्र" कौंधता है, तभी आप आध्यात्मिक होते है।।

 

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