दिन रात किताबें पढने वाले और किताबों में ज़िन्दगी गुज़ारने वाले दरअसल सबसे गहरी “मूर्छा” में जीने वाले लोग होते हैं।
Date: 2024-02-14
ज़्यादातर किताबें दरअसल और कुछ नहीं बस किसी लेखक का “दिमाग़ी फितूर” होती हैं।वो लेखक जिनकी आजीविका लेखन होती है वो किताबें आपको कोई सामाजिक सन्देश या आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिए नहीं लिखते हैं। ये वैसे ही लिखते हैं जैसे रोज़ ऑफिस जा कर काम करने वाला काम करता है।लिखना उनका काम होता है और एक टॉपिक पर लिखने के बाद वो दूसरा नया टॉपिक ढूंढते हैं लिखने के लिए। उनकी किताबें उनके भीतर से “जन्म” नहीं लेती हैं।
मेरी पत्नी, जो netflix पर बहुत अधिक web सीरीज़ देखती है एक दिन मैंने उसे समझाया कि “जो सीरीज़ देखकर तुम उसका इतना विश्लेषण करती हो और भावविभोर हो जाती हो, वो बस किसी लेखक का दिमागी फितूर भर है।उस लेखक को एक प्रोजेक्ट मिलता है और वो अपने कल्पनाओं के घोड़े दौडाता है और लिखना शुरू कर देता है।और तुम उस सीरीज़ में दार्शनिकता, नैतिकता, न्याय, जीवन जीने की कला और जाने क्या क्या ढूँढने लगते हो”
थ्री इडियट में काम करने वाले आमिर खान के अपने जीवन में उस कहानी का एक अंश आपको नहीं मिलेगा।मुन्ना भाई MBBS के संजय दत्त के जीवन में उस किरदार का एक अंश कभी नहीं मिलेगा।जिस लेखक ने ये सारी मूवीज़ लिखी उसका एक अंश भी उसने अपने जीवन में कभी इस्तेमाल नहीं किया होता है.. वो लोग काम करके आगे बढ़ जाते हैं और आप उस बेवकूफी को सीने से लगाये उसमे जाने क्या क्या खोजा करते हो। उस मूवी से “उत्तेजित” हुआ करते हो लेखकों का सिर्फ़ दिमाग़ उत्तेजित होता है और आप उसे बड़ा सीरियसली ले लेते हैं।स्पाइडर मैंन बस एक लेखक की कोरी कल्पना है और तुम नाहक उसमे पागल हुवे रहते हो चाहे वो स्पाइडर मैन का लेखक हो या मुगले आज़म का, अपने जीवन में वो परिस्थितियों के अनुसार जीवन जीता है।अपनी किताबों के अनुसार नहीं ज़्यादा किताबें और कल्पनाएँ आपको अवसाद और तरह तरह की मानसिक बीमारियाँ देती हैं।इलीट और संपन्न वर्ग में अधिक मानसिक रोग का सबसे बड़ा कारण किताबें होती हैं।
दुनिया में बड़ी कम किताबें हैं जो “जन्मी” हैं।बड़ी कम फ़िल्में हैं जो “जन्मी” हैं।99% सारे लेखन एक व्यवसाय के अंतर्गत लिखे जाते हैं।इसलिए किताबों से प्रभावित मत हुआ कीजिये। जीवन अपने प्राकृतिक रूप में अगर आप जियेंगे तो वहां “किताबों” की कोई जगह नहीं मिलेगी आपको।क्यूंकि बोना, खाना और जीने का सम्बन्ध किताबों से नहीं होता है। किताबें बस “भाषा” हैं और उस भाषा से उपजी “भावनाएं” हैं और कुछ नहीं।इसलिए भाषा पर इतना अधिक केन्द्रित होना कहीं से कहीं तक प्राकृतिक और समझदारी भरा नहीं होता है।किताबों में जीवन जीना छोडिये।।